रविवार, 21 फ़रवरी 2010

हिंदी, हाकी और बाघ

हिंदी, हाकी और बाघ

यह शीर्षक पढ़ कर कोई भी एक भाषा, खेल और जीव को एक जगह इकट्ठा करने तुक पर सवाल उठाएगा...!!! जरा गौर करें, इन तीनों के आगे हम बड़े शान से ‘राष्ट्रीय’ का उपसर्ग लगाते हैं और क्रमश राष्ट्र की वाणी, राष्ट्र का खेल परंपरा की विरासत और भारतीय बनों की शान के रूप में पेश कर गौरवान्वित होते रहे हैं । पर आज़ की तारीख में हिंदी पर अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद, हाकी पर क्रिकेट के एकछत्रवाद और बाघों पर पैसे की रायफल से हर किसी को चुप करा देनेवाले घाघों ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है । जरा ओर गहराई में जाएं तो पाएंगें कि जब राष्ट्र की अस्मिता से ज़ुड़े होने के बावजूद इनकी हत्या बड़ी खामोशी से राष्ट्र के कर्ता-धर्ताओं के नाक के नीचे की जा रही है । यह हम भारतीयों की पुरानी आदत रही है कि हमारी कुंभकर्णी नींद पानी सर से गुज़रने के बाद खुलती है और वो भी कुछ समय के लिए । उस जागरण में भी कोई सजगता और सार्थक प्रयास कम तथा अफ़रा-तफरी, आरोप-प्रत्यारोप तथा हो-हल्लाहट ज्यादा होता है । हिंदी के भविष्य को लेकर चैन की बंशी बज़ाने वाले भूल रहे हैं कि धीरे धीरे ही सही इस भाषा का क्षरण कर अंग्रेज़ी को स्थापित करने की मुहिम चल रही है । मीड़िया में हिंदी की स्थिति को देखकर खुश होनेवाले ध्यान दें की आज़ का अधिकत्तर हिंदी मिड़िया हिंदी नहीं बल्कि हिंग्लिश मिड़िया है । और हिंदी में अंग्रेजी की बेतुकी घालमेल अपनी सभी सीमाएं लांघकर एक ऐसी दोगली भाषा का निर्माण कर रहा है जिसमें ना हिंदी की आत्मा का कोई अंश है और ना हिंदी का कोई संस्कार । आधुनिकता के नाम पर इस भाषा का प्रयोग करनेवाले युवाओं को एक विदेशी भाषा को ठीक से ना समझ पाने और अपनी भाषा की शुद्धता के लिए शर्म महसूस करने की विवशता ने एक वाक्य बोलने में दस बार हकलाने और कंधे उचकाते हुए आप देख सकते हैं । यह है भाषा और संस्कारों के पतन का और नकलखोरी और आत्महीनता की ग्रंथि से उत्पन्न हकलाट और हिचकिचाहट । कोई भी समाचार, विज्ञापन या फिल्म आप देख लीजिए इसमें आपको अंग्रेज़ी की ताबड़तोड़ घुसपैठ से पैदा हुई बेमेल खिचड़ी ही मिलेगी । फिल्म के नाम देखिए__जब वी मेट, व्हाट इज व्योर राशी.....विज्ञापनों की पंचलाईन देखिए__चार बजे़वाली हंगर का सालिड सोल्युशन...फोन रिसायकल करो बनो प्लेनेट के रखवाले...और भी ना जाने क्या क्या..। आज़ हमे यह सब अटपटा इसलिए नहीं लगता क्योंकि एक प्रक्रिया के तहत आहिस्ता आहिस्ता यह दोगली भाषाई कचरा हमारे मनोमस्तिष्क में उतारा जा रहा है । एक दिन था जब माधुरी के गाने चोली के पीछे क्या है पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी पर धीरे धीरे हमारे मस्तिष्क ने यह सब पचाना शुरु कर दिया और अब हम विपाशा और हासमी की लगभग ब्लू फिल्म भी सपरिवार पचा रहे हैं । सरकार मीड़िया पर अनियंत्रण की पंगु नीति बना मुहं सीले बैठी है । इससे हमारी आनेवाली पीढि किस प्रकार सांस्कृतिक रूप से पंगु और दिग्भ्रमित पैदा होगी इसकी किसे फिक्र है । नियो जैसे क्रिकेट चैनल भी पूरी तरह अंग्रेज़ी परोसने की नीति बनाकर चल रहें हैं । जब 90% लोग अंग्रेज़ी समझ नहीं पाते तो यह स्पोर्टस चैनल क्यों भारतीय जनमानस में अंग्रेज़ी उंडेलना चाहते हैं, यह समझ से परे है । सराकार हिंदी और अन्य स्थानीय भाषाओं के प्रति सदा से उदासीन रही है ।

क्रिकेट अपनी जगह ठीक था पर इसकी लोकप्रियता पर जब कार्पोरेट की नज़र पड़ी तो यह एक व्यापार एक धंधा बन गया है । आई.पी.एल. आदि ने खिलाडियों को हाट में बिकनेवाली भेड़-बकरी बना दिया । इस खेल के सितारे तो करोड़ो से खेलते हैं पर हाकी के खिलाड़ी अपनी मैचफीस तक के लिए तरसते हैं । क्रिकेट का संभ्रांती मठ बना बीसीसीआई जिसके पास आज़ अरबों रुपये हैं क्यों हाकी और अन्य भारतीय खेलो के उत्थान के लिए आगे नहीं आती । हाकी जीये या मरे इनसे इन्हें क्या लेना-देना, इनका बटुआ गर्म होता रहे, बस यही काफी है । सरकारी निक्कमापन और बाज़ारबाद ने हाकी का भयंकर पतन कर दिया है ।

बाघों के लिए विलुप्ति शब्द लगाना विल्कुल गलत है । विलुप्त तो वे होते हैं जो अपने परिवेश से अनुकुलित ना होकर मिट जाते हैं । यहां तो पूरी बाघ प्रजाती की हत्या कर दी गई और सरकार विकलांग बन कर देखती रही । चीन और अन्य देशों में बाघ की चमड़ी,हड्डी और अन्य अंगों की सोने सी मांग ने बाघों को खत्म करवा दिया । कान्हा आदि अभयारण्यों में हमनें यह चोरी-छिपे चलने वाला कत्लेआम कुछ समय पहले देखा । बाघों के बाद अब मोर, हाथी, चीत भी एक एक कर विलुप्त हो जाएंगे और हमारी सरकार ९% की विकासदर को चूमती चाटती रह जाएगी ।

जो घट रहा वो इतना बुरा नहीं बल्कि बुरा तो यह है हमारा और आपका घातक चुप्पी साधकर तमाशाबीन बन जाना । आईए हम भी इस नकारातंत्र का हिस्सा ना बने, अपने बच्चों को चोतरफा हो रहे सांस्कृतिक हमले से बचाएं, उन्हें अपनी भाषा और संस्कृति और अपनी विरासत से रु-ब-रू करवाएं । आईए, हिंदी को बचाएं, आईए हाकी को बचाएं, आईए अपने राष्ट्रीय पशु को मानवीय पशुता से बचाएं ।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

क्या सरकार को टी.वी. चैनलों पर विज्ञापनों की अनियंत्रित बाढ़ पर नियंत्रण नहीं रखना चाहिए


मित्रों,
यह ब्लाग आप सभी का है, इस में हम समसामयिक मुद्दों पर सकारात्मक और सार्थक चर्चा करेंगें. आप सभी अपनी संयमित और स्पष्ट राय किसी भी मुद्दे पर रख सकते हैं.

आज टी.वी. देखने का आनंद खत्म सा हो गया है. इतने ज्यादा चैनलों के होने के बाबजूद विज्ञापन इतने ज्यादा बढ़ गये हैं कि कुछ देखने का मन ही नहीं करता. किसी भी चैनल पर ना तो इन विज्ञापनों में दिखाई जाने वाली सामग्री पर कोई रोक है और ना इनको दिखाने की कोई निश्चित समयसीमा. टी.वी. की स्क्रिन को भी यह विज्ञापन पूरी तरह कवर किए रहते हैं जिससे क्रिकेट या अन्य मनोरंजक कार्यक्रम के देखने में बाधा उत्पन्न होती है. आपको नहीं लगता कि सरकार को नियम बनाकर इन विज्ञापनों की समयसीमा आदि से संबंधित संहिता लागू करनी चाहिए? क्या मनोरंजन चैनल जिसे पूरा परिवार साथ बैठकर देखता है पर सेक्स और हिंसा के विज्ञापन पर रोक होनी चाहिए ?